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संविधान की सीमा या शक्ति की टक्कर? न्यायपालिका और सरकार आमने-सामने, बढ़ा देश का सियासी तापमान!

उपराष्ट्रपति धनखड़ के बयान ने फिर छेड़ी बहस, जानिए भारत में सरकार और न्यायपालिका के टकराव की बड़ी घटनाएं
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Government vs Judiciary Conflict: तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि द्वारा विधानसभा से पास किए गए 10 विधेयकों को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए उन्होंने रोकने पर सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला ​​दिया था। कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचारार्थ सहित भेजे गए इन विधेयकों पर राष्ट्रपति को 3 महीने के अंदर निर्णय लेना होगा। अब इस फैसले को लेकर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने असहमति जताई है और न्यायपालिका की भूमिका पर सवाल उठाए हैं।

उपराष्ट्रपति ने कहा, ‘ हमारे पास ऐसे जज हैं जो कानून बनाएंगे, जो कार्यपालिका के कार्य करेंगे, जो सुपर संसद के रूप में कार्य करेंगे और उनकी कोई जवाबदेही नहीं होगी, क्योंकि देश का कानून उन पर लागू नहीं होता है।’(Government vs Judiciary Conflict) उपराष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट को पूर्ण शक्तियां प्रदान करने वाले संविधान के अनुच्छेद 142 को ‘न्यायपालिका को चौबीसों घंटे उपलब्ध लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ परमाणु मिसाइल’ करार दिया। इसके बाद से न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच मतभेद को लेकर एक बार फिर चर्चा होने लगी है।

न्यायपालिका....कार्यपालिका के बीच टकराव

भारत में कई बार न्यायपालिका और कार्यपालिका आमने-सामने आए हैं, जिससे संविधान की व्याख्या और सीमाएं स्पष्ट हुईं। 1973 में केशवानंद भारती मामला एक बड़ा टकराव था। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन इसके "मूल ढांचे" को नहीं बदल सकती। कोर्ट ने संविधान की सर्वोच्चता, कानून का शासन, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों को इस मूल ढांचे का हिस्सा बताया। इस फैसले ने सरकार की मनमानी पर लगाम लगाई।

इमरजेंसी में जब सरकार का साथ देने पर आलोचना हुई

एक और टकराव इमरजेंसी के दौरान हुआ, जो 1975 से 1977 तक चला। इस दौरान लोगों की आजादी छीन ली गई, राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया गया और प्रेस पर पाबंदी लगा दी गई। इस समय का एक महत्वपूर्ण मामला एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला मामला था, जिसे आमतौर पर बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) मामला कहा जाता है। इस मामले में, जिन लोगों को प्रिवेंटिव डिटेंशन कानूनों के तहत गिरफ्तार किया गया था, उन्होंने अपनी गिरफ्तारी को चुनौती दी। उन्होंने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका के माध्यम से राहत मांगी। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के पक्ष में फैसला सुनाया।

इसे कोर्ट के इतिहास में एक काला अध्याय माना जाता है। कोर्ट ने कहा कि इमरजेंसी के दौरान, जब अनुच्छेद 32 के तहत संवैधानिक उपायों का अधिकार निलंबित कर दिया गया था, तो नागरिकों को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को लागू करने का भी अधिकार नहीं है। इस फैसले की बहुत आलोचना हुई। बाद में, इसे अन्य फैसलों और संवैधानिक संशोधनों द्वारा बदल दिया गया। जस्टिस एच.आर. खन्ना ने नागरिक स्वतंत्रता के लिए अपनी आवाज उठाई, भले ही उन्हें व्यक्तिगत रूप से नुकसान हुआ। उन्हें हमेशा याद किया जाएगा।

कार्यपालिका....न्यायपालिका के बीच संबंध तनावपूर्ण

इसके बाद के सालों में, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संबंध तनावपूर्ण बने रहे। खासकर जजों की नियुक्ति और ट्रांसफर को लेकर। 1980 के दशक की शुरुआत में, जजों की नियुक्ति का मुद्दा सामने आया। सरकार ऐसे जजों को ट्रांसफर या नियुक्त करना चाहती थी जो सरकार के समर्थक हों। इससे कई कानूनी विवाद हुए, जिन्हें सामूहिक रूप से थ्री जजेस केस के नाम से जाना गया। पहला मामला 1981 में आया, जिसमें जजों की नियुक्ति में सरकार को प्राथमिकता दी गई। लेकिन, 1993 में दूसरे जजेस केस में इस फैसले को पलट दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जजों की नियुक्ति अब एक कॉलेजियम करेगी, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश और कुछ वरिष्ठ जज शामिल होंगे। 1998 में तीसरे जजेस केस में इसे और स्पष्ट किया गया। कॉलेजियम सिस्टम को मजबूत किया गया और जजों की नियुक्ति को सरकार के हस्तक्षेप से बचाया गया।

NJAC के मुद्दे पर भी आए आमने-सामने

2014 में, संसद ने कॉलेजियम सिस्टम को बदलने के लिए 99वां संविधान संशोधन और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) अधिनियम पारित किया। NJAC में कार्यपालिका के सदस्य, जैसे कानून मंत्री, भारत के चीफ जस्टिस, सीनियर जज और दो जाने-माने लोग शामिल थे। इसे नियुक्ति प्रक्रिया को और पारदर्शी बनाने के लिए पेश किया गया था। लेकिन, 2015 में, सुप्रीम कोर्ट ने NJAC को असंवैधानिक घोषित कर दिया। कोर्ट ने कहा कि इससे संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन होता है, क्योंकि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता खतरे में पड़ती है। कोर्ट ने कहा कि नियुक्ति प्रक्रिया में कार्यपालिका के सदस्यों की उपस्थिति शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत के खिलाफ है। कोर्ट ने कॉलेजियम सिस्टम को फिर से लागू कर दिया।

सच में संवैधानिक लोकतंत्र के विकास के लिए जरूरी थे टकराव?

इन घटनाओं से पता चलता है कि भारतीय इतिहास में कई बार न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव हुआ है। ये टकराव सिर्फ संस्थागत लड़ाई नहीं थे, बल्कि भारत के संवैधानिक लोकतंत्र के विकास के लिए जरूरी थे। इनसे संसद की शक्तियों की सीमा, नागरिक स्वतंत्रता और न्यायपालिका की स्वतंत्रता तय हुई। इन सभी मामलों में न्यायपालिका ने संवैधानिक संतुलन बनाए रखने और सरकार की मनमानी के खिलाफ लोकतंत्र की रक्षा करने की कोशिश की। सरल शब्दों में कहें तो, भारत में समय-समय पर न्यायपालिका और सरकार के बीच मतभेद होते रहे हैं।

ये मतभेद संविधान को समझने, संसद की ताकत को सीमित करने और न्यायपालिका को स्वतंत्र रखने में मददगार साबित हुए हैं। इन सभी घटनाओं से पता चलता है कि भारत में न्यायपालिका और सरकार के बीच कई बार टकराव हुआ है। इन टकरावों ने भारत के लोकतंत्र को मजबूत बनाने में मदद की है। इनसे पता चला कि संसद की शक्ति कितनी है, लोगों की आजादी कितनी जरूरी है और न्यायपालिका कितनी स्वतंत्र होनी चाहिए। न्यायपालिका ने हमेशा संविधान की रक्षा करने और सरकार को मनमानी करने से रोकने की कोशिश की है।

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