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जानिए क्या है ‘न्यूक्लियर मिसाइल’ आर्टिकल 142, जिससे सुप्रीम कोर्ट बदल देता है संसद के फैसले

यह अनुच्छेद 1950 में संविधान की रचना के समय ही शामिल किया गया था। हालांकि, इस अनुच्छेद को लागू करने का तरीका समय के साथ विकसित हुआ और इसे सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न मामलों में इस्तेमाल किया।
02:28 PM Apr 18, 2025 IST | Sunil Sharma

कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक दिलचस्प आदेश जारी किया था, जो कि कई मायनों में महत्वपूर्ण था। यह मामला था अतुल कुमार का, जो एक गरीब दलित छात्र था और IIT धनबाद में एडमिशन लेने के लिए फीस नहीं भर पाया था। उसके परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर थी, लेकिन उसका सपना था कि वह IIT में प्रवेश पाए। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में उसकी मदद की और IIT को आदेश दिया कि अतुल के लिए एक अतिरिक्त सीट बनाई जाए ताकि वह अपनी पढ़ाई जारी रख सके। कोर्ट ने इसे "पूर्ण न्याय" के रूप में देखा, और यही शब्द संविधान के अनुच्छेद 142 से जुड़ा है, जिसे हाल ही में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने न्यायपालिका की शक्तियों पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी के रूप में प्रस्तुत किया।

उपराष्ट्रपति ने बताया था न्यूक्लियर मिसाइल

उल्लेखनीय है कि हाल ही में देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने संविधान के अनुच्छेद 142 को "न्यूक्लियर मिसाइल" के रूप में संबोधित किया, और इस पर बहस अब और भी तेज हो गई है। यह वही अनुच्छेद है जो सुप्रीम कोर्ट को किसी भी मामले में ‘पूर्ण न्याय’ सुनिश्चित करने की शक्तियां देता है। आइए, जानते हैं कि यह अनुच्छेद क्या है और इसका इतिहास क्या है।

अनुच्छेद 142 की उत्पत्ति और इसका विकास

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 142 एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो सुप्रीम कोर्ट को किसी भी मामले में ‘पूर्ण न्याय’ करने का अधिकार देता है। यह अनुच्छेद 1950 में संविधान की रचना के समय ही शामिल किया गया था। हालांकि, इस अनुच्छेद को लागू करने का तरीका समय के साथ विकसित हुआ और इसे सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न मामलों में इस्तेमाल किया। इस अनुच्छेद का सबसे पहला उल्लेख 1950 से 2023 के बीच कुल 1579 मामलों में हुआ था, जैसा कि एक अध्ययन में बताया गया है। इनमें से कई मामलों में कोर्ट ने इस शक्ति का उपयोग किया, जबकि कुछ मामलों में इसे नहीं लागू किया गया। शुरुआती वर्षों में इसे काफी सीमित तरीके से लागू किया गया था, लेकिन 1990 के दशक के बाद से इसके इस्तेमाल में वृद्धि हुई है।

संविधान के अनुच्छेद 142 का बढ़ता हुआ प्रभाव

अनुच्छेद 142 का उपयोग बढ़ने की शुरुआत 1990 के दशक में हुई, जब सुप्रीम कोर्ट ने इसे कई महत्वपूर्ण मामलों में लागू किया। 1991 में, दिल्ली ज्यूडिशियल सर्विस एसोसिएशन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट की शक्तियां सामान्य कानूनों से अलग और अधिक प्रभावी हैं। इसी तरह, यूनियन कार्बाइड मामले में कोर्ट ने आदेश दिया कि भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को उचित मुआवजा दिया जाए, जो कि अनुच्छेद 142 के तहत एक ऐतिहासिक निर्णय था।

संवैधानिक शक्ति और न्यायपालिका की भूमिका

हालांकि, समय-समय पर इस शक्ति को लेकर बहसें भी उठी हैं। 1998 में सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन मामले में पांच जजों की बेंच ने यह स्पष्ट किया था कि अनुच्छेद 142 मौजूदा कानूनों को बदलने का अधिकार नहीं देता, लेकिन इसे लागू करने का तरीका न्यायपालिका के विवेक पर निर्भर करता है। इसके बाद, 2006 में उमादेवी मामले में कोर्ट ने कहा था कि अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल केवल उन्हीं परिस्थितियों में किया जा सकता है, जहां यह संविधान और मौलिक अधिकारों के अनुरूप हो।

आज के समय में अनुच्छेद 142 का उपयोग

हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 का उपयोग और भी नये तरीकों से किया है। 2017 में, राष्ट्रीय राजमार्गों के पास शराब की बिक्री पर रोक लगाने का निर्णय लिया गया। 2023 में, हिंदू विवाह अधिनियम के तहत बिना किसी गलती के तलाक को वैध मानने का फैसला लिया गया। इन फैसलों ने यह साबित किया कि अनुच्छेद 142 का उपयोग कोर्ट को समय के साथ बदलती जरूरतों के मुताबिक करनें की ताकत देता है। 2024 में, चंडीगढ़ में मेयर के चुनाव को रद्द करने के लिए भी सुप्रीम कोर्ट ने इसी अनुच्छेद का सहारा लिया।

न्यायपालिका के विवेक पर करता है निर्भर

अनुच्छेद 142 ने सुप्रीम कोर्ट को वह ताकत दी है, जिससे वह न्याय के किसी भी रूप को पूरी तरह से सुनिश्चित कर सकता है, चाहे वह आर्थिक मदद हो, चुनाव रद्द करना हो या समाज के किसी भी अन्य पहलू में सुधार लाना हो। यह सुप्रीम कोर्ट को एक ऐसी ‘न्यूक्लियर मिसाइल’ की तरह बनाता है, जो जरूरत के समय किसी भी मुद्दे को प्रभावी ढंग से हल करने की क्षमता रखती है। हालांकि, यह भी सच है कि इसे उपयोग में लाने का तरीका और समय हमेशा न्यायपालिका की विवेक पर निर्भर करता है।

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