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PM पद पर रहने के बाद भी कांग्रेस से निकाले जाने पर कैसे विरोधियों को धूल चटाकर लोगों के दिलों में बस गईं इंदिरा गांधी!

1969 में इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री रहते हुए कांग्रेस से निकाल दिया गया। जानें कैसे उन्होंने विरोधियों को हराया और देशवासियों के दिलों में अपनी जगह बनाई।
01:24 PM Nov 19, 2024 IST | Vibhav Shukla

Indira Gandhi Birth Anniversary:  साल 1967 में जब इंदिरा गांधी दूसरी बार प्रधानमंत्री बनीं, तो उनका सबसे बड़ा चैलेंज कांग्रेस पार्टी के पुराने धड़े 'सिंडीकेट' से था, जो उस समय पार्टी में अहम भूमिका निभा रहा था। इस दबाव से बाहर निकलने के लिए इंदिरा गांधी ने बड़े फैसले लेने शुरू कर दिए, जिनमें से एक था राष्ट्रपति चुनाव में डॉ. राधाकृष्णन के बजाय डॉ. जाकिर हुसैन का समर्थन करना। ये कदम उनके लिए महत्वपूर्ण साबित हुआ, क्योंकि बाद में जाकिर हुसैन भारत के राष्ट्रपति बने। हालांकि, उनकी असामयिक मृत्यु के कारण इंदिरा को एक और चुनाव का सामना करना पड़ा।

साल 1969 में, इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति चुनाव में वी.वी. गिरि का समर्थन करने का ऐलान किया, जिससे पार्टी में बगावत का माहौल पैदा हो गया। उनके विरोधियों ने इसे अनुशासनहीनता मानते हुए उन्हें कांग्रेस से बाहर निकालने का फैसला किया। इसे अनुशासनहीनता इसलिए माना गया क्योंकि कांग्रेस पार्टी में किसी भी बड़े फैसले, जैसे राष्ट्रपति चुनाव, के लिए पार्टी के बड़े नेता और केंद्रीय समिति की मंजूरी जरूरी होती थी।

इंदिरा पर लगा मनमानी का आरोप

इस बार इंदिरा गांधी ने पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार संजीव रेड्डी के खिलाफ जाकर वी.वी. गिरि को समर्थन दिया। पार्टी के पुराने नेता, जो 'सिंडीकेट' के नाम से जाने जाते थे, उन्हें ये कदम बिल्कुल भी मंजूर नहीं था। उनका कहना था कि इंदिरा गांधी ने पार्टी के अंदर इस फैसले के लिए किसी से सलाह नहीं ली और अपनी मनमानी की, जिससे पार्टी में एकता की भावना को चोट पहुंची।

सिंडीकेट के नेताओं और अन्य कांग्रेस नेताओं का मानना था कि इस तरह से पार्टी के खिलाफ जाना और सार्वजनिक रूप से दूसरे उम्मीदवार का समर्थन करना पूरी पार्टी के अनुशासन के खिलाफ था। उनका ये भी कहना था कि इंदिरा गांधी ने तानाशाही की तरह फैसला लिया और अपनी पसंद को लागू किया।

इसलिए, जब इंदिरा गांधी ने यह कदम उठाया, तो उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया गया। इस फैसले के बाद कांग्रेस पार्टी दो हिस्सों में बंट गई— एक धड़ा था कांग्रेस (ओ), जो पुराने नेताओं का था, और दूसरा था कांग्रेस (आर), जिसमें इंदिरा गांधी का नेतृत्व था। पार्टी के अंदर बंटवारे को पुराने नेता अनुशासनहीनता मानते थे, जबकि इंदिरा गांधी के लिए यह एक स्वतंत्र नेतृत्व की ओर बढ़ने का कदम था।

'गरीब समर्थक' इंदिरा गांधी

इंदिरा गांधी की राजनीति की एक खास पहचान उनके 'गरीब समर्थक' फैसलों से बनी। 1969 में जब उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने का फैसला लिया, तो यह एक साहसिक और ऐतिहासिक कदम साबित हुआ। उनका मानना था कि बैंकों का उद्देश्य केवल अमीरों की मदद करना नहीं, बल्कि आम आदमी को भी कर्ज और वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना होना चाहिए। इस फैसले ने इंदिरा गांधी को गरीबों के बीच एक मजबूत नेता के रूप में स्थापित किया। यह कदम सिर्फ आर्थिक सुधार नहीं था, बल्कि इसने देश की राजनीति को एक नया मोड़ भी दिया। बैंक राष्ट्रीयकरण के समर्थन में सड़कों पर हजारों लोग उतरे, जिससे इंदिरा गांधी की लोकप्रियता में जबरदस्त इजाफा हुआ।

प्रधानमंत्री पद से इस्तीफे का विचार

इंदिरा गांधी की राजनीतिक यात्रा हमेशा संघर्षों से भरी रही। 1969 में जब पार्टी ने संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया, तो उनके लिए यह एक बड़ा राजनीतिक संकट था। इस दौरान उनके करीबी सहयोगी चंद्रशेखर ने उन्हें प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा न देने की सलाह दी और हिम्मत दी कि उन्हें संघर्ष करना चाहिए। चंद्रशेखर ने इंदिरा को बताया कि इस्तीफा देने की बजाय पार्टी के लिए और देश के लिए लड़ाई जारी रखनी चाहिए।

इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति चुनाव में वी.वी. गिरि को समर्थन देने के बाद यह बयान दिया कि यह उनका 'अंतरात्मा की आवाज' है। इस बयान ने राजनीति को नया मोड़ दिया। इंदिरा ने संजीव रेड्डी पर साम्प्रदायिकता का आरोप लगाते हुए विरोधियों को घेरने की रणनीति अपनाई और इस कदम ने उन्हें और भी ताकतवर बना दिया। अंततः, वी.वी. गिरि ने राष्ट्रपति चुनाव जीत लिया और इंदिरा गांधी की यह रणनीति सफल साबित हुई।

कांग्रेस के विभाजन के बाद इंदिरा गांधी हुई मजबूत

12 नवंबर 1969 को इंदिरा गांधी को कांग्रेस से बाहर कर दिया गया। कांग्रेस के अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा ने उन पर तानाशाही प्रवृत्तियों का आरोप लगाते हुए कहा कि उनकी वजह से पार्टी का माहौल बिगड़ चुका था। इस कदम के बाद कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गई— एक गुट था कांग्रेस (ओ) यानी 'ओल्ड' कांग्रेस, जिसे निजलिंगप्पा और अन्य पुराने नेता चला रहे थे, और दूसरा गुट था कांग्रेस (आर) यानी 'रिवाइज्ड' कांग्रेस, जिसका नेतृत्व इंदिरा गांधी ने संभाला। इस विभाजन के बाद, इंदिरा गांधी का गुट मजबूत होता गया और उनका समर्थन बढ़ने लगा।

कांग्रेस के विभाजन के बाद, इंदिरा गांधी की लोकप्रियता में जबरदस्त इजाफा हुआ। 1971 के आम चुनावों में उनकी 'गरीबी हटाओ' योजना ने उन्हें एक नई पहचान दिलाई। यह चुनाव इंदिरा गांधी के लिए एक बड़े मोड़ की तरह साबित हुआ। अब वो सिर्फ प्रधानमंत्री नहीं रही थीं, बल्कि एक ऐसी नेता के रूप में उभरीं, जिन्होंने देश की दिशा को बदलने का दावा किया।

इंदिरा गांधी ने अपने फैसलों से गरीबों के लिए कई अहम कदम उठाए, जैसे कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण और 'गरीबी हटाओ' जैसी योजनाओं की शुरुआत। इन फैसलों ने उन्हें गरीबों का रक्षक बना दिया। उन्होंने ये साबित किया कि राजनीति सिर्फ ताकत और सत्ता के लिए नहीं होती, बल्कि यह समाज के कमजोर तबके के लिए काम करने का एक माध्यम भी हो सकती है।

उनकी इस निडर और साहसिक राजनीति ने उनके विरोधियों को पीछे छोड़ दिया। इसके साथ ही, उनके परिवार का कांग्रेस में वर्चस्व और भी मजबूत हो गया। इंदिरा गांधी ने साबित किया कि कांग्रेस का असली नेतृत्व नेहरू-गांधी परिवार के पास है। इस पूरी स्थिति में उन्होंने अपने नेतृत्व का लोहा मनवाया और कांग्रेस की राजनीति में अपनी मजबूत पकड़ बनाई।

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