'हमारी जमीन से जन्मी भाषा, इसे धर्मों में न बाँटो': SC ने उर्दू को लेकर कह दी ये बड़ी बात! जानिए
सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक टिप्पणी के साथ उर्दू को न सिर्फ भारत की अपनी भाषा बताया, बल्कि इसे धर्मों से जोड़ने की गलतफहमी को भी खारिज कर दिया। महाराष्ट्र के अकोला जिले में एक साइनबोर्ड पर उर्दू के इस्तेमाल को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने कहा, "उर्दू गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक है, इसे हिंदू-मुस्लिम के खाँचे में न बाँटो।" जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस के विनोद चंद्रन की बेंच ने औपनिवेशिक ताकतों को इस विभाजन का जिम्मेदार ठहराया और भाषा को संचार का माध्यम बताते हुए एकता का संदेश दिया। आखिर क्या था यह मामला, और क्यों कोर्ट का यह फैसला हर किसी को सुनना चाहिए? आइए, इस कहानी को सरल अंदाज में समझते हैं।
मामला क्या था?
दरअसल महाराष्ट्र के अकोला जिले के पातुर कस्बे में नगर परिषद भवन के साइनबोर्ड पर उर्दू के इस्तेमाल ने विवाद खड़ा कर दिया। पातुर की पूर्व पार्षद वर्षताई संजय बागड़े ने 2020 में इस पर आपत्ति जताई। उनकी दलील थी कि महाराष्ट्र लोकल ऑथोरिटी (राजभाषा) एक्ट, 2022 के तहत साइनबोर्ड पर सिर्फ मराठी का इस्तेमाल होना चाहिए, और उर्दू का प्रयोग गैरकानूनी है। नगर परिषद ने उनकी माँग ठुकरा दी, यह कहते हुए कि उर्दू का इस्तेमाल 1956 से हो रहा है और स्थानीय लोग इसे अच्छे से समझते हैं।
बागड़े ने 2021 में बॉम्बे हाई कोर्ट का रुख किया, लेकिन वहाँ भी उनकी याचिका खारिज हो गई। हाई कोर्ट ने कहा कि उर्दू का इस्तेमाल संचार के लिए है, और यह स्थानीय जरूरतों को पूरा करता है। इसके बाद बागड़े ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की, जिसमें उर्दू को हटाने की माँग दोहराई गई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ उनकी याचिका खारिज की, बल्कि उर्दू की तारीफ में ऐसी बातें कहीं, जो हर भारतीय के लिए सुनना जरूरी है।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
15 अप्रैल 2025 को जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस के विनोद चंद्रन की बेंच ने इस मामले में गहरी और संवेदनशील टिप्पणियाँ कीं:
उर्दू भारत की अपनी भाषा: कोर्ट ने कहा कि यह गलत धारणा है कि उर्दू विदेशी भाषा है। यह भारत की मिट्टी से उपजी भाषा है, जो गंगा-जमुनी तहजीब और हिंदुस्तानी संस्कृति का सबसे खूबसूरत नमूना है।
भाषा धर्म नहीं: जस्टिस धूलिया ने साफ शब्दों में कहा कि भाषा का धर्म से कोई लेना-देना नहीं। यह न तो किसी धर्म का प्रतिनिधित्व करती है, न ही उसे धर्म के आधार पर बाँटा जा सकता है। भाषा एक समुदाय, क्षेत्र और उसके लोगों की होती है।
औपनिवेशिक ताकतों की साजिश: कोर्ट ने हिंदी को हिंदुओं और उर्दू को मुसलमानों से जोड़ने के लिए औपनिवेशिक ताकतों को जिम्मेदार ठहराया। कोर्ट के मुताबिक, अंग्रेजों ने धर्म के आधार पर भाषाओं को बाँटा, जिसके चलते हिंदी और उर्दू को गलत तरीके से हिंदू-मुस्लिम के खाँचे में डाल दिया गया। यह सार्वभौमिक भाईचारे की भावना के खिलाफ है।
संचार है उद्देश्य: कोर्ट ने उर्दू के इस्तेमाल को सही ठहराते हुए कहा कि भाषा का पहला मकसद संचार है। पातुर में उर्दू का उपयोग इसलिए है, क्योंकि स्थानीय लोग इसे समझते हैं, और नगर परिषद का मकसद प्रभावी संचार सुनिश्चित करना था।
पूर्वाग्रहों को छोड़ें: कोर्ट ने सभी से अपील की कि हमें अपनी गलतफहमियों और भाषा के प्रति पूर्वाग्रहों को परखना चाहिए। उर्दू और हर भाषा से दोस्ती करनी चाहिए, क्योंकि हमारी ताकत कभी हमारी कमजोरी नहीं हो सकती।
वहीं कोर्ट ने संविधान का हवाला देते हुए कहा कि उर्दू और मराठी को समान दर्जा प्राप्त है। साइनबोर्ड पर उर्दू का इस्तेमाल जायज है, और इसे हटाने की कोई जरूरत नहीं।
क्यों खास है यह फैसला?
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सिर्फ एक साइनबोर्ड के बारे में नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक एकता और भाषाई विविधता का जश्न है। उर्दू, जो कभी हिंदुस्तान की साझा विरासत का हिस्सा थी, अक्सर गलतफहमियों का शिकार रही है। कोर्ट ने न सिर्फ उर्दू को धर्म के चश्मे से देखने की मानसिकता को चुनौती दी, बल्कि औपनिवेशिक इतिहास की उस गलती को भी उजागर किया, जिसने भाषाओं को बाँटने का काम किया।
पातुर जैसे छोटे कस्बे में उर्दू का इस्तेमाल दिखाता है कि यह भाषा आज भी स्थानीय लोगों के बीच जीवित है। कोर्ट ने इसे "संचार का माध्यम" बताकर इसकी उपयोगिता को और मजबूत किया। यह फैसला उन लोगों के लिए करारा जवाब है, जो भाषा को सांप्रदायिक रंग देना चाहते हैं। साथ ही, यह एक संदेश है कि भारत की ताकत उसकी विविधता में है, जिसे हमें गले लगाना चाहिए।
उर्दू का इतिहास: गंगा-जमुनी तहजीब की रही है मिसाल
उर्दू का जन्म 12वीं-13वीं सदी में दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में हुआ। यह संस्कृत, प्राकृत, खड़ी बोली, फारसी, अरबी और तुर्की शब्दों का मिश्रण है। मुगल काल में यह दरबारी भाषा बनी, और बाद में आम लोगों की जुबान। मीर, गालिब, इकबाल और फैज जैसे शायरों ने उर्दू को साहित्य की बुलंदियों तक पहुँचाया। लेकिन 19वीं सदी में अंग्रेजों ने "फूट डालो, राज करो" की नीति के तहत हिंदी को देवनागरी और उर्दू को फारसी लिपि से जोड़ा, जिससे दोनों को धर्म से बाँटने की कोशिश हुई।वहीं आज भी उर्दू जम्मू-कश्मीर और तेलंगाना की आधिकारिक भाषा है, और संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल है। यह न सिर्फ मुसलमानों, बल्कि हर उस भारतीय की भाषा है, जो गंगा-जमुनी तहजीब में यकीन रखता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस विरासत को फिर से रेखांकित किया है।
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