पहलगाम में आतंकी हमले से उठे सवाल, ‘क्या वाकई कलमा जबरन पढ़ाया जा सकता है?’
कश्मीर की दिलकश वादियों में जब गोलियों की आवाज गूंजी, तो न सिर्फ इंसानियत लहूलुहान हुई, बल्कि मजहब के नाम पर एक बार फिर ज़हर फैलाया गया। 22 नवंबर की उस दोपहर पहलगाम का हिल स्टेशन सैलानियों से गुलजार था। लेकिन कुछ आतंकियों ने उस खूबसूरती को खून से रंग दिया। और इस बार उनका हथियार सिर्फ बंदूक नहीं था—बल्कि ‘कलमा’ भी था।
"कलमा पढ़ लो, जान बच जाएगी"—धर्म बना दिया गया मौत की शर्त
चश्मदीदों के मुताबिक, हमलावरों ने लोगों से उनका नाम और धर्म पूछा। फिर कहा—“अगर कलमा पढ़ लोगे, तो ज़िंदा छोड़ देंगे।” जो पढ़ पाया, वह बच गया। जिसने इनकार किया, उसे मौत दी गई। लेकिन क्या सच में कलमा ऐसा कुछ कहता है?
क्या है कलमा और इसका मतलब?
कलमा, इस्लाम का पहला और सबसे अहम स्तंभ है। इसका अर्थ है ‘गवाही’—एक ऐसा वाक्य जिसे पढ़कर कोई व्यक्ति इस्लाम में दाखिल होता है। पहला कलमा तय्यब कहता है: “ला इलाहा इलल्लाह, मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह। यानि अल्लाह के सिवा कोई पूजनीय नहीं, और मुहम्मद साहब अल्लाह के रसूल हैं।” धार्मिक विद्वानों के अनुसार, यह सिर्फ शब्द नहीं, एक पूरी विचारधारा है—समर्पण, विश्वास और खुदा की राह पर चलने की शपथ। लेकिन ज़बरदस्ती किसी से यह कहलवाना, इस कलमे का अपमान है।
क्या इस्लाम में जबरन कलमा पढ़वाना जायज़ है?
इस्लाम से जुड़े लोगों के अनुसार कोई भी बात बिना इच्छा के थोपना हराम (गुनाह) माना गया है। कुरान की सूरा बकरा, आयत 256 साफ कहती है: “दीन में कोई ज़ोर-जबर्दस्ती नहीं।” यानी किसी को मजबूरी में मुसलमान नहीं बनाया जा सकता। यही बात सूरा यूनुस की आयतें भी दोहराती हैं: “अगर अल्लाह चाहता तो सभी लोग खुद ही मुसलमान हो जाते, फिर तुम क्यों किसी पर ज़ोर डाल रहे हो?” पैगंबर मुहम्मद ने खुद कभी किसी को इस्लाम कबूलने पर मजबूर नहीं किया। इस्लाम हमेशा खुदा और बंदे के रिश्ते को दिल से जोड़ने की बात करता है, बंदूक की नोंक पर नहीं।
हत्या का इस्लाम में क्या स्थान है?
इस्लाम में किसी भी मासूम की हत्या सबसे बड़ा गुनाह मानी जाती है। सूरा-निसा, आयत 93 में कहा गया है: “जो जानबूझकर किसी को मारता है, उसकी जगह जहन्नुम है।” एक हदीस के अनुसार, पैगंबर मुहम्मद ने कहा, “जब तक कोई खून न बहाए, तब तक वह ईमान के दायरे में रह सकता है।” तो सवाल ये है—अगर आतंकी खुद को मुसलमान कहते हैं, तो फिर क्यों उन्होंने उन मासूमों को मारा जिनका कसूर सिर्फ इतना था कि उन्होंने कलमा नहीं पढ़ा?
जब धर्म को बना दिया गया राजनीति का औज़ार
इस हमले ने सिर्फ लोगों की जान नहीं ली, बल्कि मजहब की पवित्रता को भी लहूलुहान कर दिया। 28 निर्दोष सैलानियों की जान गई। और जाते-जाते इन आतंकियों ने इस्लाम की छवि को भी चोट पहुंचाई। कलमा, जो एक रूहानी शुरुआत का प्रतीक है, उसे डर का हथियार बना दिया गया। आतंकियों ने जो किया, वह न सिर्फ इंसानियत के खिलाफ था, बल्कि इस्लाम के उसूलों की भी धज्जियां उड़ाना था।
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