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'वन नेशन वन इलेक्शन' से भारत की राजनीति में क्या होगा बदलाव?

केंद्र सरकार ने 'वन नेशन वन इलेक्शन' (one nation one election ) के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। यह निर्णय प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट बैठक में लिया गया। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में...
02:57 PM Sep 18, 2024 IST | Vibhav Shukla
वन नेशन वन इलेक्‍शन प्रस्‍ताव को कैबिनेट की मंजूरी दे दी गई है

केंद्र सरकार ने 'वन नेशन वन इलेक्शन' (one nation one election ) के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। यह निर्णय प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट बैठक में लिया गया। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनी एक विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट के आधार पर यह कदम उठाया गया है। अब इस प्रस्ताव को शीतकालीन सत्र में संसद में विधेयक के रूप में पेश किया जाएगा।

मोदी सरकार पिछले कार्यकाल से ही "एक देश, एक चुनाव" के प्रति गंभीर नजर आ रही थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार चुनावी जनसभाओं में इस विचार का समर्थन किया है। हाल ही में, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने एनडीए सरकार के 100 दिन पूरे होने के अवसर पर "एक देश, एक चुनाव" के संकल्प को दोहराया।

पिछले साल बनाई गई थी समिति 

 

पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में 2 सितंबर 2023 को "वन नेशन-वन इलेक्शन" (one nation one election meaning) के लिए एक समिति बनाई गई थी। इस समिति ने 14 मार्च 2024 को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को अपनी रिपोर्ट सौंपी। समिति ने 191 दिनों तक विशेषज्ञों और विभिन्न राजनीतिक दलों के लोगों से चर्चा की, जिसके बाद 18,626 पन्नों की एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की गई। इस रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि सभी राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ाकर 2029 तक किया जाए, ताकि अगले लोकसभा चुनाव के साथ इन विधानसभाओं के चुनाव भी एक साथ कराए जा सकें।

वन नेशन-वन इलेक्शन के तहत सौंपी गई रिपोर्ट में हंग असेंबली और अविश्वास प्रस्ताव की स्थिति पर भी सुझाव दिए गए हैं। कमेटी ने कहा है कि ऐसी परिस्थिति में किसी विधानसभा के बचे हुए कार्यकाल के लिए चुनाव कराए जा सकते हैं। इसके अलावा, रिपोर्ट में देशभर में दो चरणों में चुनाव कराने का भी प्रस्ताव है। पहले चरण में एक साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव होंगे, जबकि दूसरे चरण में 100 दिनों के भीतर स्थानीय निकायों के चुनाव कराए जा सकेंगे।

‘एक देश, एक चुनाव’ की जरूरत क्यों

 

‘एक देश, एक चुनाव’ (what is one nation one election) की जरूरत पर चर्चा करते हुए संसदीय समिति ने अनुमान लगाया कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने में निर्वाचन आयोग 4,500 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च करता है। यह खर्च उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों के घोषित और अघोषित खर्च के अलावा है। बीजेपी का तर्क है कि एक साथ चुनाव कराने से खर्च में कमी आएगी और आदर्श आचार संहिता चुनाव से पहले सरकारों को नई नीतियां बनाने या परियोजनाएं शुरू करने से नहीं रोकेगी।

इस संबंध में, अगस्त 2018 में विधि आयोग ने पंचायत से लेकर लोकसभा तक सभी चुनाव एक साथ कराने की ड्राफ्ट रिपोर्ट पेश की, जिसमें बताया गया कि इसके लिए कई कानूनों और संविधान में बदलाव की जरूरत होगी। सितंबर 2023 में, सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति बनाने की घोषणा की। इस समिति ने मार्च 2024 में 18,000 पन्नों की सिफारिशें राष्ट्रपति को सौंपी।

इस समिति में कई प्रमुख सदस्य शामिल थे, जैसे केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, केंद्रीय विधि मंत्री अर्जुन राम मेघवाल, लोकसभा में कांग्रेस के पूर्व नेता अधीर रंजन चौधरी, राज्यसभा में विपक्ष के पूर्व नेता गुलाम नबी आजाद, 15वें वित्त आयोग के अध्यक्ष एनके सिंह, संविधान विशेषज्ञ डॉ. सुभाष कश्यप, सुप्रीम कोर्ट के वकील हरीश साल्वे, और पूर्व चीफ विजिलेंस कमिश्नर संजय कोठारी।

‘एक देश, एक चुनाव’ के पीछे विचार क्या है?

 

‘एक देश, एक चुनाव’ का प्रस्ताव भारत में सभी चुनावों को एक साथ कराने की व्यवस्था से जुड़ा है। इसके तहत चुनाव एक ही दिन या निश्चित समयावधि में कराए जा सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस व्यवस्था का समर्थन करते रहे हैं, जब वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे। इस विचार के तहत लोकसभा और सभी राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का प्रस्ताव है।

स्वतंत्र भारत में शुरुआती कई लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हुए थे। लेकिन 70 के दशक में, जब कुछ राज्यों की विधानसभाएं जल्दी भंग होने लगीं, तब यह व्यवस्था कमजोर पड़ गई।

यह चक्र पहली बार 1959 में तब टूटा जब केंद्र ने केरल की सरकार को बर्खास्त करने के लिए अनुच्छेद 356 लागू किया। 1960 के बाद, राजनीतिक दलों के बीच लगातार दल-बदल के कारण कई विधानसभाएं भी भंग हो गईं, जिससे लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए अलग-अलग चुनाव कराने की जरूरत पड़ी।

हालांकि, वर्तमान में अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, आंध्र प्रदेश और ओडिशा जैसे कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ ही होते हैं। इस विचार का समर्थन 1999 में बी.पी. जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने भी किया था।

किन पार्टियों का मिल रहा समर्थन 

 

‘एक देश, एक चुनाव’ के मुद्दे पर कई पार्टियों का समर्थन सामने आया है। एनडीए में बीजेपी के दो प्रमुख सहयोगियों में से जनता दल (यूनाइटेड) इस कदम के समर्थन में है, जबकि तेलुगू देशम पार्टी (TDP) का रुख अभी साफ नहीं है। कोविंद पैनल ने जब TDP से संपर्क किया, तो उनकी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली।

कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति ने 62 पार्टियों से संपर्क किया था। इनमें से 47 दलों ने जवाब दिया, जिनमें से 32 ने एक साथ चुनाव कराने के विचार का समर्थन किया, जबकि 15 दलों ने इसका विरोध किया। कुल 15 पार्टियों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। इस तरह, पक्ष और विपक्ष में विभिन्न दलों की राय सामने आई है।

एक देश, एक चुनाव’ के लाभ

 

केंद्रित शासन: एक बार चुनाव हो जाने के बाद सरकार अधिक ध्यान केंद्रित कर पाती है। वर्तमान में हर तीसरे महीने कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं, जिससे नेताओं का ध्यान चुनावों पर ज्यादा रहता है, जो विकास की गति को धीमा कर सकता है।

नीतियों की निरंतरता: चुनावों के दौरान आदर्श आचार संहिता लागू होती है, जिससे नई नीतियों पर निर्णय लेने में देरी होती है। इससे प्रशासनिक कार्य प्रभावित होते हैं और विकास योजनाओं में रुकावट आती है।

चुनावों की लागत में कमी: बार-बार होने वाले चुनावों से राजनीतिक भ्रष्टाचार बढ़ता है। एक साथ चुनाव कराने से खर्च कम होगा और राजनीतिक दलों को धन जुटाने की चिंता से मुक्ति मिलेगी। 2019 के लोकसभा चुनाव में करीब 60,000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे।

सुरक्षा बलों की तैनाती में कमी: चुनाव शांतिपूर्ण ढंग से कराने के लिए बड़ी संख्या में सुरक्षा बल तैनात होते हैं। एक साथ चुनाव होने से इस तैनाती की जरूरत कम होगी, जिससे सुरक्षा बल अपने अन्य महत्वपूर्ण कार्यों पर ध्यान दे सकेंगे।

खरीद-फरोख्त में कमी: चुनावों की विशिष्ट अवधि होने से प्रतिनिधियों के बीच खरीद-फरोख्त की संभावनाएं कम होंगी, जिससे राजनीतिक स्थिरता बढ़ेगी।

फ्रीबीज़ में कमी: बार-बार चुनावों के कारण सरकारें मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त उपहारों का ऐलान करती हैं। चुनावों की संख्या कम होने से ऐसी घोषणाओं की आवृत्ति घटेगी, जिससे राज्य की वित्तीय स्थिति बेहतर हो सकेगी।

एक देश, एक चुनाव’ से जुड़ी चुनौतियाँ

 

व्यवहार्यता की समस्या: संविधान के अनुच्छेद 83(2) और 172 के अनुसार लोकसभा और राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल पांच साल होता है, लेकिन अगर किसी सरकार का कार्यकाल बीच में ही गिर जाए, तो स्थिति क्या होगी? क्या उस राज्य में दोबारा चुनाव होंगे या राष्ट्रपति शासन लगाया जाएगा?

लॉजिस्टिक्स संबंधी चुनौतियाँ: एक साथ चुनाव कराने के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों, कर्मचारियों और अन्य संसाधनों की उपलब्धता की आवश्यकता होगी। यह निर्वाचन आयोग के लिए एक बड़ी चुनौती होगी।

संघवाद के विचार के खिलाफ: ONOE का विचार संघवाद की धारणा के खिलाफ जाता है। यह पूरी तरह से ‘एक’ राष्ट्र की सोच पर आधारित है, जबकि भारत को ‘राज्यों के संघ’ के रूप में देखा गया है।

विधिक चुनौतियाँ: विधि आयोग ने कहा है कि संविधान के मौजूदा ढांचे के तहत एक साथ चुनाव कराना संभव नहीं है। इसके लिए संविधान और अन्य कानूनी दस्तावेजों में संशोधन करना पड़ेगा, और इसे लागू करने के लिए कम से कम 50% राज्यों की सहमति जरूरी होगी।

क्षेत्रीय हितों पर असर: बार-बार चुनावों का होना मतदाताओं को अपनी आवाज उठाने का मौका देता है। राष्ट्रीय और राज्य चुनावों के मुद्दे अलग-अलग होते हैं, और एक साथ चुनाव कराने से क्षेत्रीय मुद्दे कमजोर हो सकते हैं।

लागत-प्रभावी नहीं होने की संभावना: विभिन्न अनुमानों के अनुसार, सभी चुनावों की लागत 10 रुपये प्रति मतदाता प्रति वर्ष आती है, जबकि एक साथ चुनाव कराने पर यह 5 रुपये प्रति मतदाता प्रति वर्ष होगी। लेकिन इसके लिए बड़ी संख्या में मशीनों की तैनाती की आवश्यकता होगी, जिससे शुरुआत में लागत बढ़ सकती है।

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