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अजमेर में कैसे बनी ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह? जानिए पूरी कहानी

अजमेर में स्थित ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह का इतिहास जानें। कैसे पार्शिया से आए इस महान सूफी संत ने अपनी शिक्षाओं से भारत में शांति और भाईचारे की नींव रखी
01:06 PM Nov 29, 2024 IST | Vibhav Shukla

Khwaja Moinuddin Chishti Dargah: राजस्थान के अजमेर में स्थित ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह इन दिनों एक नए विवाद का सामना कर रही है। हिंदू सेना के अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ने एक याचिका दायर की है, जिसमें उन्होंने दावा किया है कि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह जिस जगह पर बनी है, वह पहले एक शिव मंदिर था। इस याचिका के बाद, राजस्थान की एक निचली अदालत ने मामले की सुनवाई शुरू कर दी है और अब यह संभावना जताई जा रही है कि दरगाह के परिसर का सर्वे कराया जा सकता है।

यह विवाद धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से बेहद संवेदनशील है, और इसे लेकर विभिन्न समुदायों के बीच मतभेद भी हो सकते हैं। लेकिन इस बीच यह जरूरी है कि हम समझें कि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती कौन थे और उनकी दरगाह का इतिहास क्या है। आखिरकार, यह दरगाह न सिर्फ मुस्लिम समुदाय बल्कि देश-विदेश से आने वाले लाखों श्रद्धालुओं के लिए आस्था और भक्ति का एक प्रमुख केंद्र रही है।

ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती कौन थे?

ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती एक महान सूफी संत थे, जिनका जन्म 1143 ईस्वी में आज के ईरान के सिस्तान क्षेत्र में हुआ था। उनका जीवन पूरी तरह से अध्यात्म और मानवता की सेवा में समर्पित था। वे सूफीवाद के चिश्ती सिलसिले के प्रमुख संत थे, जिन्होंने भारत में चिश्ती सिलसिले की नींव रखी और अपना जीवन गरीबों और जरूरतमंदों की सेवा में लगाया। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को उनके अनुयायी "गरीब नवाज" (गरीबों के दाता) के नाम से जानते हैं, क्योंकि उन्होंने हमेशा गरीबों की मदद की और उनकी भलाई के लिए काम किया।

ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का भारत में आगमन 1192 ईस्वी के आसपास हुआ था, जब दिल्ली में मोहम्मद गोरी का शासन था। गोरी ने भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी सत्ता स्थापित की थी। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने पहले दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में अपने उपदेश देना शुरू किया और फिर उन्होंने अजमेर को अपना स्थायी निवास बनाया।

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अजमेर में ख्वाजा ने इस्लाम का प्रचार किया और लोगों को धर्म, प्यार, भाईचारे और ईश्वर के प्रति निष्ठा का संदेश दिया। उनका मानना था कि सभी इंसान समान हैं और उनका जीवन सिर्फ और सिर्फ एक दूसरे की सेवा और ईश्वर के चिंतन में समर्पित होना चाहिए। उनका संदेश समाज के हर वर्ग को प्रभावित करता था - चाहे वह राजे-रजवाब हों या किसान और मजदूर।

ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की मकबरा से दरगाह बनने का इतिहास

ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती (History of Ajmer Dargah) का निधन 1236 ईस्वी में हुआ था। उनके निधन के बाद, उन्हें अजमेर में दफनाया गया। ख्वाजा के अनुयायी उनकी कब्र को एक पवित्र स्थल मानते हैं और आज भी उस स्थान पर श्रद्धा भाव से आते हैं। शुरुआत में, ख्वाजा की समाधि पर एक साधारण मकबरा बनाया गया था, लेकिन बाद में मुग़ल सम्राट हुमायूं ने इसे शानदार दरगाह के रूप में विकसित किया। बाद में अकबर, जहांगीर और शाहजहां जैसे मुग़ल शासकों ने भी दरगाह के जीर्णोद्धार में योगदान दिया और इसे एक प्रमुख धार्मिक स्थल बना दिया।

अजमेर शरीफ दरगाह के ऊपर बड़ौदा के तत्कालीन महाराजा ने सुंदर आच्छादन बनवाया था और बाद में मुग़ल शासकों ने इसके स्वरूप में कई सुधार किए। दरगाह को लेकर भारतीय इतिहास में कई प्रसिद्ध शासकों और सम्राटों का जुड़ाव रहा है। कई मुस्लिम शासकों के साथ-साथ हिंदू सम्राटों ने भी यहाँ जियारत की।

 दरगाह में हर साल मनाया जाता है ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का उर्स

अजमेर शरीफ दरगाह अब एक प्रमुख धार्मिक स्थल बन चुकी है, जहां हर साल लाखों श्रद्धालु ख्वाजा की समाधि पर चादर चढ़ाने और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने आते हैं। दरगाह के अंदर ख्वाजा की समाधि और उनके जीवन की तस्वीरें आज भी श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र बनी हुई हैं। हर साल ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की पुण्यतिथि के मौके पर अजमेर शरीफ में उर्स का आयोजन होता है। उर्स एक धार्मिक आयोजन है, जिसमें ख्वाजा के अनुयायी उनकी समाधि पर चादर चढ़ाने और उनके आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आते हैं। इस दिन को शोक के बजाय जश्न के रूप में मनाया जाता है, क्योंकि ख्वाजा के अनुयायी मानते हैं कि इस दिन उनके गुरु (ख्वाजा) अपने अनुयायियों से मिलते हैं।

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उर्स के दौरान दरगाह में कव्वाली, संगीत और धार्मिक कार्यक्रम होते हैं, जो इस आयोजन को और भी खास बनाते हैं। लाखों लोग इस मौके पर अजमेर आते हैं, चाहे वे हिंदू हों या मुस्लिम, क्योंकि ख्वाजा का संदेश सार्वभौमिक था और उन्होंने हमेशा धर्म, मानवता और भाईचारे की बात की थी।

भारत में चिश्ती सिलसिले की शुरुआत

ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने भारत में चिश्ती सिलसिले की शुरुआत की। यह सिलसिला एक तरह का धार्मिक मार्ग था, जो ईश्वर के साथ मिलकर जीवन जीने पर जोर देता है। ख्वाजा का मानना था कि इंसान को अपने मन और दिल को सिर्फ भगवान के ध्यान में लगाना चाहिए और दुनिया की चीजों से दूर रहना चाहिए।

चिश्ती सिलसिला के लोग बहुत शांत और प्रेम से रहने वाले होते थे। वे मानते थे कि सांसारिक चीज़ों से मोह नहीं रखना चाहिए, क्योंकि ये इंसान को सही रास्ते से भटका देती हैं। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने हमेशा यह सिखाया कि इंसान को दूसरों से प्यार और भाईचारे से पेश आना चाहिए, और गरीबों की मदद करनी चाहिए।

ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने हमेशा अपना जीवन सेवा में बिताया। उन्होंने कभी भी किसी राजा या शासक से तोहफा या इनाम नहीं लिया। उनका मानना था कि भगवान हर इंसान के अंदर है, और हर इंसान को सम्मान मिलना चाहिए। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी मानवता की सेवा में लगाई, और अपने अनुयायियों को यही सिखाया।

चिश्ती सिलसिला सिर्फ एक धार्मिक तरीका नहीं था, बल्कि एक जीने का तरीका था। इसके अनुयायी शांति, प्यार और सेवा के रास्ते पर चलते हैं। ख्वाजा के इन सिद्धांतों ने भारत में बहुत बड़ा असर छोड़ा, और आज भी उनके अनुयायी यही रास्ता अपनाते हैं।

ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती और शिव मंदिर का दावा

अब वर्तमान विवाद की ओर आते हैं, जिसमें हिंदू सेना के अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ने दावा किया है कि अजमेर शरीफ की दरगाह जिस स्थान पर स्थित है, वह पहले एक शिव मंदिर था। इस दावे के बाद राजस्थान की निचली अदालत ने मामले की सुनवाई शुरू कर दी है।

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याचिका में यह कहा गया है कि दरगाह का निर्माण शिव मंदिर की जमीन पर हुआ था। अब यह संभावना जताई जा रही है कि दरगाह के परिसर का सर्वे किया जाएगा और इस मामले में आगे की कार्रवाई की जाएगी। यह मामला धार्मिक संवेदनाओं से जुड़ा हुआ है और इसे लेकर विभिन्न समुदायों में मतभेद हो सकते हैं लेकिन यह भी सच है कि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह एक ऐसी जगह है, जहाँ लाखों लोग अपने-अपने धर्म और विश्वास से ऊपर उठकर आस्था के साथ आते हैं।

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