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'पढ़ाई तो बस कागज का टुकड़ा, स्किल्स ही लाएंगे मौके!' DU टॉपर बिस्मा की पोस्ट ने खोली जॉब मार्केट की पोल

दिल्ली यूनिवर्सिटी की टॉपर बिस्मा फरीद को इंटर्नशिप के लिए रिजेक्शन झेलना पड़ा। उनकी वायरल LinkedIn पोस्ट ने बताया कि मार्क्स से ज्यादा स्किल्स मायने रखते हैं। जानिए जॉब मार्केट की हकीकत और शिक्षा व्यवस्था पर सवाल।
12:39 PM Apr 23, 2025 IST | Girijansh Gopalan

बचपन से हम सुनते आए हैं- "बेटा, मन लगाकर पढ़ो, अच्छे नंबर लाओ, तभी जिंदगी में कुछ बन पाओगे।" मम्मी-पापा, टीचर, रिश्तेदार, सब यही राग अलापते हैं। स्कूल में टॉप करो, कॉलेज में मेडल बटोरो, फिर देखो कैसे बड़ी-बड़ी कंपनियां तुम्हें हाथोंहाथ लेगी। लेकिन जब असल जिंदगी में कदम रखो, तब पता चलता है कि वो डिग्री, वो मार्कशीट, वो सर्टिफिकेट्स बस कागज के टुकड़े हैं। जॉब मार्केट में इनका कोई मोल नहीं, अगर तुम्हारे पास स्किल्स नहीं हैं। ऐसा ही कुछ हुआ दिल्ली यूनिवर्सिटी की टॉपर बिस्मा फरीद के साथ। 50 से ज्यादा सर्टिफिकेट्स, 10 से ज्यादा मेडल्स, ढेर सारी ट्रॉफियां, फिर भी इंटर्नशिप के लिए दर-दर भटकना पड़ा। बिस्मा ने अपनी आपबीती LinkedIn पर शेयर की, और उनकी पोस्ट ने न सिर्फ स्टूडेंट्स के दिल की बात सामने ला दी, बल्कि जॉब मार्केट और हमारी शिक्षा व्यवस्था पर सवाल भी खड़े कर दिए।

टॉपर, मेडलिस्ट, फिर भी खाली हाथ

बिस्मा फरीद दिल्ली यूनिवर्सिटी के हंसराज कॉलेज में B.A. इंग्लिश ऑनर्स की फर्स्ट ईयर की स्टूडेंट हैं। पढ़ाई में हमेशा अव्वल। स्कूल हो या कॉलेज, हर जगह टॉप। उनके पास 50 से ज्यादा सर्टिफिकेट्स हैं, 10 से ज्यादा मेडल्स, और इतनी ही ट्रॉफियां। सुनने में लगता है ना कि इतने अवॉर्ड्स वाला स्टूडेंट तो कहीं भी जाए, कंपनियां उसे झट से जॉब दे देंगी। लेकिन हकीकत इससे कोसों दूर है। बिस्मा जब इंटर्नशिप की तलाश में निकलीं, तो हर जगह से रिजेक्शन ही मिला। न जॉब मिली, न इंटर्नशिप। उनके सारे मेडल्स, सर्टिफिकेट्स, और टॉपर होने का तमगा जॉब मार्केट में बस कागज का टुकड़ा बनकर रह गया।

बिस्मा ने अपनी LinkedIn पोस्ट में लिखा कि उन्हें ये बात समझने में वक्त लगा कि सिर्फ मार्क्स और डिग्री से कुछ नहीं होता। कंपनियां टॉपर्स की तलाश में नहीं होतीं, जो किताबें रटकर 90% मार्क्स लाए हों। वो ऐसे लोग चाहती हैं, जिनके पास कोई ठोस स्किल हो, जो काम करके दिखा सकें। बिस्मा की ये पोस्ट कुछ ही घंटों में वायरल हो गई। हजारों स्टूडेंट्स ने इसे शेयर किया, कमेंट्स में अपनी कहानियां बयां कीं, और एक नई बहस छेड़ दी- स्किल्स बनाम मार्क्स।

'किताबें मत जलाओ, स्किल सीखो'

बिस्मा ने अपनी पोस्ट में साफ-साफ लिखा, "मैं ये नहीं कह रही कि अपनी किताबें जला दो, अपने बैग को आग के हवाले कर दो। लेकिन एक स्किल चुन लो। उसकी रोज प्रैक्टिस करो। उसमें माहिर बन जाओ। फिर देखना, मौके खुद तुम्हारे पास चलकर आएंगे।" उनकी ये बात हर उस स्टूडेंट के लिए एक सबक है, जो दिन-रात किताबों में सिर खपाकर ये सोचता है कि बस अच्छे मार्क्स ही उसे जिंदगी में सेट कर देंगे। बिस्मा ने बताया कि जब वो इंटर्नशिप के लिए इंटरव्यू देने गईं, तो कोई उनके मार्क्स नहीं पूछ रहा था। सवाल थे- "तुम्हारे पास क्या स्किल्स हैं? तुमने प्रैक्टिकली क्या किया है? तुम हमारी कंपनी के लिए क्या वैल्यू ऐड कर सकते हो?" इन सवालों ने बिस्मा को झकझोर दिया। उन्हें एहसास हुआ कि उनकी सारी मेहनत, सारे सर्टिफिकेट्स तब तक बेकार हैं, जब तक उनके पास कोई ऐसी स्किल नहीं, जो जॉब मार्केट में काम आए।

सोशल मीडिया पर छलका दर्द

बिस्मा की पोस्ट ने सोशल मीडिया पर तहलका मचा दिया। हजारों लोगों ने उनके पोस्ट पर कमेंट किए, अपनी कहानियां शेयर कीं। एक यूजर ने लिखा, "बिस्मा, तुम अकेली नहीं हो। मैं भी यूनिवर्सिटी टॉपर था, लेकिन जॉब के लिए भटकना पड़ा। आखिर में एक स्किल सीखी, तब जाकर कहीं जॉब मिली।" एक दूसरे यूजर ने लिखा, "हमारा एजुकेशन सिस्टम बस रट्टा मारने पर जोर देता है। प्रैक्टिकल नॉलेज की कोई वैल्यू नहीं।" कई लोगों ने बिस्मा की हिम्मत की दाद दी कि उन्होंने इतने बड़े प्लैटफॉर्म पर अपनी बात रखी। एक यूजर ने लिखा, "बिस्मा, तुमने लाखों स्टूडेंट्स की आवाज को बुलंद किया है। डटे रहो, तुम्हारा वक्त जरूर आएगा।" कुछ लोगों ने तो ये भी कहा कि बिस्मा की पोस्ट को उनके मम्मी-पापा को दिखाना चाहिए, जो बच्चों पर सिर्फ मार्क्स लाने का प्रेशर डालते हैं।

एजुकेशन सिस्टम पर उठे सवाल

बिस्मा की कहानी ने सिर्फ स्टूडेंट्स का दर्द ही सामने नहीं लाया, बल्कि हमारे एजुकेशन सिस्टम पर भी सवाल खड़े कर दिए। लोग पूछ रहे हैं कि अगर टॉपर्स और मेडलिस्ट्स को भी जॉब मार्केट में मौके नहीं मिल रहे, तो फिर हमारी शिक्षा व्यवस्था आखिर स्टूडेंट्स को तैयार किस लिए कर रही है? भारत में आज भी ज्यादातर स्कूल-कॉलेज वही पुराना ढर्रा अपनाए हुए हैं। सिलेबस रटो, एग्जाम में अच्छे मार्क्स लाओ, बस हो गया। प्रैक्टिकल नॉलेज, स्किल डेवलपमेंट, इंडस्ट्री एक्सपोजर- इन चीजों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। नतीजा? स्टूडेंट्स कॉलेज से निकलते हैं, लेकिन जॉब मार्केट के लिए तैयार नहीं होते। एक यूजर ने कमेंट में लिखा, "डिग्री और सर्टिफिकेट्स इंटरव्यू तक तो पहुंचा सकते हैं, लेकिन करियर बनता है स्किल्स से। कॉलेजों को अब ये समझना होगा।" एक और यूजर ने लिखा, "हमारे यहां प्रैक्टिकल नॉलेज सिलेबस में है ही नहीं। फिर कंपनियां स्किल्स मांगें तो स्टूडेंट्स के पास क्या जवाब होगा?"

जॉब मार्केट की हकीकत

बिस्मा की कहानी ने जॉब मार्केट की कड़वी सच्चाई को भी सामने ला दिया। आज कंपनियां सिर्फ डिग्री या मार्क्स नहीं देखतीं। वो चाहती हैं कि कैंडिडेट के पास प्रैक्टिकल एक्सपीरियंस हो, इंडस्ट्री नॉलेज हो, और सबसे जरूरी- स्किल्स हों। चाहे वो डिजिटल मार्केटिंग हो, डेटा एनालिसिस हो, कंटेंट राइटिंग हो, या फिर कोडिंग। अगर आपके पास कोई ठोस स्किल नहीं, तो आपकी डिग्री कितनी भी चमकदार क्यों न हो, वो बेकार है।

बिस्मा ने अपनी पोस्ट में ये भी बताया कि कंपनियां ऐसे टॉपर्स को जॉब नहीं देना चाहतीं, जिनके पास सिर्फ किताबी ज्ञान हो। वो ऐसे लोग चाहती हैं, जो काम करके दिखा सकें। और ये बात सिर्फ बिस्मा की कहानी तक सीमित नहीं है। सोशल मीडिया पर ढेरों स्टूडेंट्स ने अपनी कहानियां शेयर कीं, जहां उन्हें भी यही हकीकत समझ आई।

क्या है स्किल्स का मतलब?

अब सवाल ये उठता है कि आखिर ये स्किल्स हैं क्या? और स्टूडेंट्स इन्हें कैसे सीखें? स्किल्स का मतलब है वो खास हुनर, जो आपको जॉब मार्केट में दूसरों से अलग बनाए। मिसाल के तौर पर, अगर आप इंग्लिश ऑनर्स के स्टूडेंट हैं, तो सिर्फ शेक्सपियर की किताबें रटने से काम नहीं चलेगा। आपको कंटेंट राइटिंग, कॉपीराइटिंग, या डिजिटल मार्केटिंग जैसी स्किल्स सीखनी होंगी। अगर आप इंजीनियरिंग कर रहे हैं, तो सिर्फ थ्योरी पढ़ने से नहीं, कोडिंग, डेटा एनालिसिस, या AI टूल्स का इस्तेमाल सीखना होगा।
बिस्मा ने स्टूडेंट्स को सलाह दी कि एक स्किल चुनो, और उसमें मास्टर बनो। रोज प्रैक्टिस करो। ऑनलाइन कोर्सेज करें, फ्रीलांसिंग ट्राई करें, प्रोजेक्ट्स बनाएं। ये सारी चीजें आपको प्रैक्टिकल एक्सपीरियंस देंगी, जो जॉब मार्केट में काम आएगा।

 

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