पहले सिनेमा, अब OTT: क्या हिंदी रंगमंच का संकट गहराता जा रहा है?
नई दिल्ली: 27 मार्च को विश्व रंगमंच दिवस के मौके पर जब दुनिया भर में कला और संस्कृति की बात हो रही है, वहीं भारत में हिंदी रंगमंच अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ता दिख रहा है। कभी नौटंकी और पारसी थियेटर से गुलजार यह मंच सिनेमा के उदय के साथ कमजोर हुआ और अब OTT प्लेटफॉर्म्स ने इसके सामने नई चुनौती खड़ी कर दी है। पृथ्वीराज कपूर से लेकर नसीरुद्दीन शाह तक, रंगमंच ने सिनेमा को कई सितारे दिए, लेकिन खुद अपनी चमक खोता जा रहा है। क्या हिंदी रंगमंच सच में संकट में है, और इसे बचाने का रास्ता क्या है? आइए, इसकी पड़ताल करते हैं।
सिनेमा से OTT तक: क्या रंगमंच पर दोहरा हमला?
भारत में रंगमंच की जड़ें सिनेमा से भी गहरी हैं। नौटंकी और पारसी थियेटर ने लोगों को जोड़ा, लेकिन 20वीं सदी में सिनेमा ने इनका रंग फीका कर दिया। इप्टा और पृथ्वी थियेटर जैसे प्रयासों ने रंगमंच को जिंदा रखा, मगर यहाँ से निकले बलराज साहनी, ओम पुरी और शबाना आज़मी जैसे कलाकार सिनेमा की चकाचौंध में खो गए। अब OTT का दौर है। सैक्रेड गेम्स से मिर्ज़ापुर तक, वेब सीरीज ने न सिर्फ मनोरंजन का नया मंच दिया, बल्कि थियेटर कलाकारों को पैसा, पहचान और मौके भी दे दिए। नतीजा? रंगमंच के मंच खाली होते जा रहे हैं। सवाल उठता है—क्या रंगमंच सिर्फ ट्रेनिंग ग्राउंड बनकर रह जाएगा?
अर्थ से लेकर दर्शकों की कमी से जूझ रहा रंगमंच
हिंदी रंगमंच की सबसे बड़ी चुनौती है इसकी आर्थिक हालत। दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (NSD) जैसे संस्थान साल में 100 से ज्यादा शो करते हैं, और मुंबई, कोलकाता, लखनऊ जैसे शहरों में भी थियेटर चलता है। मगर छोटे शहरों में यह परंपरा कमजोर है। दर्शक कम हैं, टिकटों से होने वाली कमाई सीमित है, और कलाकारों की आजीविका अधर में लटकती है। एक थियेटर कलाकार ने कहा, "हम नाटक करते हैं, तालियाँ बटोरते हैं, लेकिन पेट नहीं भरता। OTT एक रात में लाखों दे देता है।" बांग्ला, मराठी, या गुजराती रंगमंच में दर्शक अब भी जुटते हैं, लेकिन हिंदी रंगमंच इस मोर्चे पर पिछड़ रहा है। क्यों? शायद हिंदी समाज की सांस्कृतिक जड़ों से कटने की वजह से।
क्यों कमजोर पड़ रहा रंगमंच प्लेटफॉर्म?
सिनेमा और OTT ने आधुनिक जीवन पर कब्ज़ा कर लिया है। महानगरीय चमक और राजनीतिक बहसों में लोक संस्कृति पीछे छूट गई है। विशेषज्ञ मानते हैं कि रंगमंच को फिर से प्रासंगिक बनाने के लिए इसे लोक जीवन से जोड़ना होगा। नौटंकी और रामलीला जैसे नाटकों में कभी भीड़ जुटती थी, क्योंकि वे आम लोगों की कहानियाँ कहते थे। आज एनएसडी जैसे संस्थान परंपरा और आधुनिकता का संतुलन बनाते हैं, लेकिन यह कोशिश राज्य स्तर तक नहीं पहुँच पाई। थियेटर को विविधता चाहिए—लोक कथाओं, गीतों और स्थानीय मुद्दों से जुड़कर ही यह नई साँस ले सकता है।
थिएटर पॉलिसी से बच सकता है रंगमंच का भविष्य?
रंगमंच को बचाने के लिए एक ठोस नीति का अभाव सबसे बड़ी रुकावट है। अगर सरकार स्कूल-कॉलेजों और गाँवों में थियेटर को बढ़ावा दे, तो यह जन-जन तक पहुँच सकता है। विशेषज्ञ कहते हैं, "जैसे खेलों के लिए सरकारी योजनाएँ हैं, वैसे ही थियेटर के लिए भी सिस्टम बनना चाहिए।" सरकारी सहायता से वर्कशॉप, फेस्टिवल और सब्सिडी दी जा सकती है। इससे न सिर्फ दर्शक बढ़ेंगे, बल्कि कलाकारों की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी। मगर अभी तक ऐसी कोई पहल नजर नहीं आती।
सिनेमा पर संकट से रंगमंच को मिलेगा मौका?
हैरानी की बात है कि आज सिनेमा खुद संकट में है। बड़े बजट की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुँह गिर रही हैं, और दर्शक OTT की ओर बढ़ रहे हैं। यह रंगमंच के लिए सुनहरा मौका हो सकता है। अगर यह गाँव-शहरों में जागरूकता और मनोरंजन का माध्यम बने, तो सिनेमा से ऊबे लोग इसके करीब आ सकते हैं। छोटे शहरों में सिनेमाघर नहीं हैं—वहाँ रंगमंच लोक नाटकों के ज़रिए नया दर्शक वर्ग बना सकता है। इससे नए कलाकार भी उभरेंगे और रंगमंच फिर से जीवंत हो सकता है।
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