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मायावती का नया सियासी तेवर: 2027 के चुनाव के लिए बसपा में बड़े बदलाव, किसका बढ़ेगा सिरदर्द?

मायावती ने 2027 के चुनाव के लिए बसपा में बड़े बदलाव किए हैं। जानिए कैसे उनका नया सियासी तेवर बीजेपी और सपा-कांग्रेस के लिए चुनौती बन सकता है।
07:12 PM Mar 11, 2025 IST | Girijansh Gopalan

उत्तर प्रदेश की सियासत में हाशिए पर खड़ी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को मायावती ने 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले एक्टिव करने की कवायद शुरू कर दी है। मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद और उनके ससुर अशोक सिद्धार्थ को पार्टी से बाहर करने के बाद एक नए सियासी तेवर में नजर आ रही हैं। वह इन दिनों मुस्लिमों से जुड़े मुद्दों को मुखर होकर उठा रही हैं और बीजेपी को कठघरे में खड़ा कर रही हैं। इस तरह से बसपा लगातार राजनीतिक चर्चाओं में बनी हुई है।

बसपा का सिमटता आधार

बसपा का चुनाव दर चुनाव आधार सिमटता जा रहा है। 2024 के लोकसभा चुनाव में बसपा खाता नहीं खोल सकी और 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में सिर्फ एक सीट ही जीत पाई थी। बसपा का वोट शेयर 9.39 फीसदी पर आ गया है। पार्टी का गैर-जाटव दलित वोट पहले ही खिसक चुका है, और अब जाटव वोट में भी सेंध लग गई है। ऐसे में मायावती के लिए बसपा के सियासी वजूद को बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है।

बसपा में बड़े सियासी बदलाव

मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद और उनके ससुर अशोक सिद्धार्थ को पार्टी से बाहर कर दिया है। उनकी जगह पर रामजी गौतम और रणधीर बेनीवाल को नेशनल कोऑर्डिनेटर नियुक्त किया है। रामजी गौतम लखीमपुर खीरी से हैं, जबकि बेनीवाल सहारनपुर से हैं। यूपी में भी मायावती ने तमाम अहम बदलाव किए हैं। सूबे के मंडल प्रभारियों को बदला गया है, और तीन मुस्लिम नेताओं को अहम जिम्मेदारी सौंपी गई है। दलित और अतिपिछड़े समाज से आने वाले नेताओं को भी प्रभारी के तौर पर लगाया गया है।

2027 के चुनाव की तैयारी

बसपा के सियासी बदलाव को 2027 के विधानसभा चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है। मायावती ने हर मंडल में चार कोऑर्डिनेटर नियुक्त कर दिए हैं, साथ ही दो जिला और दो विधानसभा प्रभारी भी बनाए हैं। मायावती ने बसपा नेताओं से कहा है कि मंडल स्तर पर संगठन में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, ओबीसी और मुस्लिमों को जोड़ने के मिशन में जुटें। मायावती इसी सियासी कॉम्बिनेशन के साथ 2007 में बहुमत के साथ सरकार बनाने में कामयाब रही थीं, और अब फिर से उसी फॉर्मूले पर काम कर रही हैं।

मायावती का मुस्लिम मुद्दों पर तेवर

मायावती पिछले दिनों रमजान में मस्जिदों से लाउडस्पीकर उतारे जाने की कार्रवाई पर तीखी प्रतिक्रिया दे चुकी हैं। उन्होंने कहा था कि भारत सभी धर्मों को सम्मान देने वाला धर्मनिरपेक्ष देश है। ऐसे में केंद्र और राज्य सरकारों को बिना पक्षपात के सभी धर्मों के मानने वालों के साथ एक जैसा बर्ताव करना चाहिए। उन्होंने उत्तराखंड सरकार की ओर से मदरसों को सील किए जाने की कार्रवाई को भी गैर-सेक्युलर बताया।

कांशीराम जयंती से बसपा मिशन-2027

बसपा 15 मार्च को कांशीराम जयंती का कार्यक्रम लखनऊ और नोएडा में मनाएगी। मेरठ मंडल के जिलों में पार्टी के लोग नोएडा में कार्यक्रम मनाएंगे, जबकि लखनऊ मंडल के नेता लखनऊ के कार्यक्रम में शिरकत करेंगे। इस तरह से कांशीराम की जयंती से बसपा मिशन-2027 का आगाज माना जा रहा है।

बसपा की सक्रियता से किसे लाभ?

बसपा प्रमुख मायावती के जमीनी स्तर पर सक्रिय न होने का सियासी लाभ 2022 के चुनाव में सपा को मिला था, तो 2024 में सपा-कांग्रेस गठबंधन के पक्ष में गया था। दलित समाज का बड़ा झुकाव इंडिया गठबंधन के साथ रहा, जिसका नतीजा रहा कि बसपा का खाता नहीं खुला। बसपा में हुए उथल-पुथल और मायावती की सक्रियता 2027 के चुनाव से जोड़कर देखी जा रही है।

2027 के लिए भाजपा की चुनौती

2027 के चुनाव के लिहाज से बसपा में किए जा रहे बदलाव को गंभीरता से लिया जा रहा है। यूपी में 22 फीसदी दलित वोटर हैं, जिसमें 50 फीसदी से ज्यादा जाटव समाज का वोट है। मायावती के सियासी उतार-चढ़ाव के हर दौर में जाटव समाज उनके साथ जुड़ा रहा है। 2024 के लोकसभा चुनावों में बसपा का वोट शेयर गिरकर 9.39 फीसदी पर आ गया। इससे साफ जाहिर होता है कि जाटव समाज भी उनसे दूर हो रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि संविधान और आरक्षण के मुद्दे पर जाटव कांग्रेस के साथ चले गए थे। बसपा के सियासी उदय से पहले तक जाटव समाज कांग्रेस के समर्थक रहे थे। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि दलित एकमत होकर वोट नहीं देते हैं। यही कारण था कि जहां जाटवों ने कांग्रेस का साथ छोड़कर बसपा का दामन थामा, वहीं वाल्मीकि और पासी जैसे अन्य दलित समुदाय भाजपा की ओर मुड़ गए।

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