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नाडा तोड़ने से लेकर पीड़िता को ही दोषी ठहराने तक, रेप केस में जजों की अजीब दलीलें! ज्यूडिशरी में ये क्या हो रहा है?

इलाहाबाद हाईकोर्ट के दो फैसलों में रेप के प्रयास को नकारा गया, पीड़िता को जिम्मेदार ठहराया गया—क्या न्याय अब पीड़ितों के खिलाफ हो गया?
01:35 PM Apr 11, 2025 IST | Rohit Agrawal

रेप मामलों को लेकर पिछले कुछ समय में आए अदालती फैसलों ने पूरे देश में हंगामा मचा दिया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के दो अलग-अलग मामलों में जजों की टिप्पणियों ने न सिर्फ कानूनी हलकों में बहस छेड़ दी, बल्कि आम लोगों के मन में भी सवाल उठा दिए। पहले मामले में कोर्ट ने कहा कि किसी लड़की के ब्रेस्ट को पकड़ना और पायजामे का नाड़ा तोड़ना "रेप का प्रयास" नहीं है। अब ऐसे ही दूसरे मामले में एक कॉलेज छात्रा के साथ रेप के आरोपी को जमानत देते हुए जज ने कहा कि पीड़िता ने "खुद मुसीबत को आमंत्रित किया।" ये फैसले न सिर्फ चौंकाने वाले हैं, बल्कि यह सवाल भी उठाते हैं कि क्या न्यायपालिका अब पीड़ितों को दोष देने की राह पर चल पड़ी है? क्या ऐसे फैसलों से अपराधियों का मनोबल बढ़ेगा और पीड़िताओं का भरोसा टूटेगा? आइए, इन मामलों को विस्तार से समझते हैं।

मामला नंबर 1: नाड़ा तोड़ना "रेप का प्रयास" नहीं

2021 में उत्तर प्रदेश के कासगंज में एक नाबालिग लड़की के साथ छेड़छाड़ का मामला सामने आया। शिकायत के मुताबिक, पवन और आकाश नाम के दो आरोपीयों ने लड़की को लिफ्ट देने के बहाने अपने साथ ले गए। रास्ते में उन्होंने उसकी छाती पकड़ी, पायजामे का नाड़ा तोड़ा और उसे एक पुल के नीचे खींचने की कोशिश की। राहगीरों के आने से वे भाग गए। निचली अदालत ने इसे "रेप का प्रयास" माना और IPC की धारा 376 (रेप) व POCSO एक्ट की धारा 18 के तहत मुकदमा चलाने का आदेश दिया। लेकिन 17 मार्च 2025 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा ने इस फैसले को पलट दिया।

कोर्ट ने कहा कि यह घटना "तैयारी" की श्रेणी में आती है, "रेप के प्रयास" में नहीं। जज का तर्क था कि रेप का प्रयास साबित करने के लिए यह दिखाना जरूरी है कि आरोपी ने तैयारी से आगे बढ़कर कोई ठोस कदम उठाया हो। यहाँ ऐसा कुछ नहीं हुआ। कोर्ट ने आरोपियों के खिलाफ रेप की धारा हटाकर IPC की धारा 354B (छेड़छाड़) और POCSO की धारा 9/10 (अग्रवेटेड सेक्शुअल असॉल्ट) के तहत मुकदमा चलाने का आदेश दिया। इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने सख्त नाराजगी जताई और इसे "संवेदनहीन" बताते हुए रोक लगा दी।

मामला नंबर 2: "पीड़िता ने खुद मुसीबत बुलाई

दूसरा मामला दिल्ली का है, जहाँ एक कॉलेज छात्रा ने अपने परिचित पर रेप का आरोप लगाया। दरअसल सितंबर 2024 में पीड़िता अपने दोस्तों के साथ हौज खास के एक बार में थी। रात 3 बजे तक शराब पीने के बाद वह नशे में थी। उसने अपने पुरुष मित्र पर भरोसा किया और उसके साथ "आराम करने" के लिए जाने को तैयार हुई। लेकिन आरोप है कि उसका दोस्त उसे नोएडा के बजाय गुरुग्राम के एक फ्लैट में ले गया और वहाँ रेप किया। दिसंबर 2024 में आरोपी गिरफ्तार हुआ, लेकिन 11 मार्च 2025 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस संजय कुमार सिंह ने उसे जमानत दे दी।

इस मामले में जज ने कहा कि पीड़िता एक पढ़ी-लिखी छात्रा थी, उसे अपने फैसलों की समझ थी। देर रात तक शराब पीना और पुरुष मित्र के साथ जाना—यह सब उसकी अपनी पसंद था। मेडिकल रिपोर्ट में हाइमन टूटने की बात आई, लेकिन डॉक्टर ने रेप की पुष्टि नहीं की। कोर्ट ने माना कि आरोपी का कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं था और वह महीनों से जेल में था। जज की टिप्पणी थी कि वह खुद इस स्थिति के लिए जिम्मेदार थी।" इस फैसले ने पीड़िता को कटघरे में खड़ा कर दिया और बहस छेड़ दी कि क्या अब कोर्ट पीड़ितों के व्यवहार को जज करने लगे हैं?

क्या ये फैसले भविष्य में खतरनाक साबित होंगे?

इन दोनों मामलों ने न्यायपालिका की सोच पर सवाल उठाए हैं। पहला फैसला "रेप के प्रयास" की परिभाषा को कमजोर करता है, तो दूसरा पीड़िता के चरित्र पर उँगली उठाता है। कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे फैसले भविष्य में नजीर बन सकते हैं। वकील इनका हवाला देकर निचली अदालतों में जमानत माँग सकते हैं, जिससे अपराधियों का हौसला बढ़ेगा। सरकारें भले ही महिलाओं की सुरक्षा के लिए सख्त कानून बनाएँ, लेकिन अगर कोर्ट ऐसे फैसले देगा, तो क्या पीड़िताओं को इंसाफ मिलेगा?

 

बता दें कि पुलिस थानों में शिकायत दर्ज कराने से लेकर मेडिकल टेस्ट तक, पीड़िता पहले ही कई मुश्किलों से गुजरती है। ऊपर से कोर्ट में ऐसी टिप्पणियाँ उसे और तोड़ सकती हैं। पहले पुलिस के सवाल, फिर मेडिकल की प्रक्रिया और अब कोर्ट का रवैया—क्या कोई पीड़िता इन सबके बाद हिम्मत जुटा पाएगी कि वह इंसाफ माँगने जाए?

क्या बदल रहा है न्यायपालिका का नजरिया?

ये पहली बार नहीं है जब कोर्ट के फैसलों ने पीड़ितों को शक के घेरे में लिया हो। अक्सर वकील कोर्ट में पीड़िता से ऐसे सवाल करते हैं, जो उसे शर्मिंदगी में डाल दें। अब अगर जज भी पीड़िता को दोष देने लगें, तो न्याय प्रणाली पर भरोसा कैसे बचेगा? ये फैसले न सिर्फ कानून की आत्मा को चोट पहुँचाते हैं, बल्कि समाज में यह संदेश भी देते हैं कि अपराधी आसानी से बच सकता है।

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