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सरकार ने केदारनाथ-हेमकुंड सहिब रोपवे को दी मंजूरी, जानिए इसके पीछे की पूरी साइंस, कैसे काम करता है ये?

उत्तराखंड में अब केदारनाथ और हेमकुंड साहिब तक पहुंचना आसान होने वाला है। सरकार ने दो बड़े रोपवे प्रोजेक्ट को मंजूरी दे दी है।
01:48 PM Mar 06, 2025 IST | Vyom Tiwari

केंद्र सरकार ने केदारनाथ और हेमकुंड साहिब रोपवे प्रोजेक्ट को मंजूरी दे दी है, जिससे तीर्थयात्रियों को अब लंबी और कठिन चढ़ाई नहीं करनी पड़ेगी। सोनप्रयाग से केदारनाथ तक बनने वाला रोपवे करीब 12.9 किमी लंबा होगा और इसके निर्माण में लगभग 4081 करोड़ रुपये खर्च होंगे। वहीं, हेमकुंड साहिब रोपवे के लिए 2730 करोड़ रुपये का बजट तय किया गया है, जो गोविंद घाट से हेमकुंड साहिब तक की यात्रा को आसान बना देगा।

लेकिन क्या आप जानते हैं कि रोपवे कैसे बनता है? यह काम कैसे करता है और इसमें कौन-सी तकनीक का इस्तेमाल होता है? आइए, इसे समझने की कोशिश करते हैं!

कब बना था दुनिया का पहला रोपवे ?

आधुनिक समय में रोपवे सार्वजनिक परिवहन का एक अहम हिस्सा बनता जा रहा है। इसे केबल कार, एरियल लिफ्ट, ट्राम या चेयर लिफ्ट भी कहा जाता है। इसमें केबल के सहारे केबिन, गोंडोला या खुली कुर्सियां हवा में चलती हैं, जिससे लोग और सामान आसानी से एक जगह से दूसरी जगह पहुंच सकते हैं।

अगर रोपवे के इतिहास की बात करें, तो शुरुआत में इसका इस्तेमाल सिर्फ माल ढुलाई के लिए किया जाता था। दुनिया का पहला यांत्रिक रोपवे क्रोएशिया के फॉस्टो वेरान्ज़ियो ने 1616 में डिजाइन किया था। इसके बाद, 1644 में पोलैंड के एडम वायबे ने पहली केबल कार बनाई, जो घोड़ों की मदद से चलती थी। इसका इस्तेमाल नदी के पार मिट्टी ले जाने के लिए किया जाता था।

भारत में बिहार में बना था पहला रोपवे 

भारत में पहला आधुनिक रोपवे 1960 के दशक में बिहार के राजगीर में बना था। इसे जापान के प्रसिद्ध बौद्ध संन्यासी फुजी गुरुजी ने उपहार में दिया था। इस रोपवे से विश्व शांति स्तूप तक जाया जाता है। इस पर सबसे पहले समाजवादी नेता जय प्रकाश नारायण ने यात्रा की थी। साल 1986 में उत्तराखंड (जो तब उत्तर प्रदेश का हिस्सा था) में मसूरी से देहरादून तक एक रोपवे बनाया गया था, जिसका उपयोग चूना नीचे लाने के लिए किया जाता था।

आज भारत में पर्वतमाला स्कीम के तहत दुनिया का सबसे बड़ा रोपवे प्रोजेक्ट चल रहा है। इस योजना में 2030 तक 1,250 अरब (बिलियन) रुपये खर्च कर 1200 किमी से ज्यादा लंबे 200 नए रोपवे बनाए जाएंगे। ये रोपवे पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत तैयार किए जाएंगे। केदारनाथ रोपवे के निर्माण के लिए 4,081 करोड़ रुपये का अनुमानित खर्च तय किया गया है।

कहां है भारत का सबसे लंबा रोपवे?

उत्तराखंड का औली रोपवे भारत का सबसे लंबा और दुनिया का दूसरा सबसे लंबा रोपवे है। यह जोशीमठ से औली के टॉप तक जाता है और इसकी लंबाई 4.5 किलोमीटर है। लेकिन साल 2021 में भू-धंसाव के बाद से यह बंद पड़ा है। दुनिया का सबसे लंबा रोपवे वियतनाम में है, जिसकी लंबाई 7.9 किलोमीटर है।

अगर मसूरी-देहरादून रोपवे बनकर तैयार हो जाता है, तो यह 5.5 किलोमीटर लंबा होगा और भारत का सबसे लंबा रोपवे बन जाएगा। वहीं, वाराणसी (काशी) में देश का पहला शहरी रोपवे बनाया जा रहा है, जो दुनिया का तीसरा शहरी रोपवे होगा। इससे पहले, शहरी रोपवे 2014 में बोलिविया और 2021 में मेक्सिको सिटी में बनाए जा चुके हैं।

भारत में ये रोपवे भी हैं खास

भारत में कई शानदार रोपवे हैं, जो पहाड़ों और नदियों के बीच सफर को आसान और रोमांचक बनाते हैं।

🚡 तवंग मोनेस्ट्री रोपवे (अरुणाचल प्रदेश): यह दुनिया के सबसे ऊंचे रोपवे में से एक है। इसे 2010 में समुद्र तल से 11,000 फीट की ऊंचाई पर बनाया गया था।

🚡 गुवाहाटी उमानंद आईलैंड रोपवे (असम): 1,800 मीटर लंबा यह रोपवे भारत का सबसे लंबा नदी पर बना रोपवे है। यह ब्रह्मपुत्र नदी और उमानंद आईलैंड को जोड़ता है और उत्तर गुवाहाटी तक पहुंचने में मदद करता है।

🚡 अंबाजी उड़नखटोला (गुजरात): यह भारत में चौथा सबसे व्यस्त रोपवे है और अंबाजी मंदिर जाने के लिए यात्रियों को सुविधा देता है।

🚡 गिरनार रोपवे (गुजरात): इसे 2020 में शुरू किया गया था और उस समय यह एशिया का सबसे लंबा रोपवे था।

🚡 पावागढ़ रोपवे (गुजरात): कलिका माता मंदिर तक जाने वाला यह रोपवे 1986 में बना था और 2005 में इसे अपग्रेड किया गया, जिससे यह भारत का सबसे अधिक क्षमता वाला रोपवे बन गया।

🚡 गुलमर्ग गोंडोला (कश्मीर): यह दुनिया में दूसरा और एशिया का सबसे ऊंचा केबल कार रोपवे है, जो 13,400 फीट की ऊंचाई तक जाता है।

रोपवे कैसे होता है तैयार?

रोपवे या एरियल ट्रामवे एक ऐसा साधन है जो पहाड़ों, घाटियों या मुश्किल रास्तों को पार करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसमें एक या दो मजबूत केबल (ट्रैक केबल) होती हैं, जो केबिन को सहारा देती हैं। इसके अलावा, एक और केबल (हॉल केबल) होती है, जो केबिन को खींचने का काम करती है।

इलेक्ट्रिक मोटर की मदद से यह हॉल केबल चलती है, जिससे केबिन आगे-पीछे जाता है। यह सिस्टम आमतौर पर रिवर्सिबल होता है, यानी जब केबिन एक छोर पर पहुंचता है तो रुककर अपनी दिशा बदल लेता है और फिर वापस लौटता है।

गोंडोला लिफ्ट और एरियल ट्रामवे में थोड़ा फर्क होता है। एरियल ट्रामवे में केबिन रुक-रुककर चलता है, जबकि गोंडोला लिफ्ट लगातार चलती रहती है। इसमें केबिन एक घूमने वाली केबल से जुड़ा होता है, जो बिना रुके चलती रहती है और यात्रियों को उनके गंतव्य तक पहुंचाती है।

टू-कार ट्रामवेज में जिग-बैक सिस्टम का इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें ट्रामवेज के नीचे एक इलेक्ट्रिक मोटर लगी होती है। यह मोटर एक केबिन के वजन का उपयोग करके उसे नीचे खींचती है, जिससे दूसरी केबिन ऊपर चली जाती है।

मसूरी से देहरादून के बीच बने पहले रोपवे के निर्माण से जुड़े और वर्तमान में प्रोटेकान बीटीजी प्राइवेट लिमिटेड के सीनियर वाइस प्रेसीडेंट अरुण जुत्सी का कहना है कि केंद्र सरकार का यह नया फैसला श्रद्धालुओं के सफर को और आसान बनाएगा। उन्होंने कहा कि आज के समय में ऐसे रोपवे बड़ी संख्या में बनाए जाने की जरूरत है, और भारत सरकार ने इसकी शुरुआत कर दी है।

 

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